सावन का महीना और भगवान शंकर का दिन सोमवार । सुबह से ही आज एक सुखद एहसास और भाव ने मुझे घेर रखा था और हम सब लोग आज अंदर वाले कमरे में बैठ कर अम्मा के जीवन के सबसे अभिन्न अंग मेरे बड़े भैया और अम्मा का दिन भर बजने वाले फ़ोन को लेकर चर्चा कर रहे थे और चर्चा भी भैया के मायूसी और फ़ोन के ख़ामोशी को ही लेकर हो रही थी की तभी अस्वस्थ हो चुके फ़ोन ने मानो ख़ुद को ऐसा स्वस्थ कर लिया की अम्मा फिर से अपने और अपनो का हाल चाल लेने में व्यस्त हो गई और इसके साथ ही भैया भाभी बच्चे धीरे धीरे वहाँ से खिसकने लगे और मौक़े पे चौका मैं क्यूँ नहीं मारता मैं भी बस दरवाज़े तक ही पहुँचा था की पीछे से आवाज़ आई .. ये देखो फिर आवाज़ चली गई ।
उनकी इस दुःख भरी आवाज़ ने मुझे रोक तो लिया लेकिन अभी जब तक मैं फ़ोन को लेकर देखता तभी बारामदे से आवाज़ किसी की रोने चिल्लाने की आवाज़ आई ... भैया हमारी मम्मी का शरीर ठण्डा पड़ गया है और कुछ बोल भी नहीं रही है । पापा ने उन्हें तुरंत बोला वो घर चले हम लोग आ रहे है ।
पिछले एक महीने में ये किसी अपने बड़े बुज़ुर्ग के जाने की तीसरी घटना थी और साथ ही करोना संकट जिसमें कोई भी ना किसी को बुला रहा ना कही कोई जा रहा फिर भी अम्मा तुरंत सबको साथ लेकर पहुँच गई और अपनी मौसी से उनके जीते जी नहीं मिल पाई और शायद इसका क़सूरवार कुछ हद तक मैं भी था जिसने अव्यवस्था और करोना के डर से उनके आख़िरी दर्शन से पहले के आख़िरी दर्शन से वंचित रखा ।
यूँ तो उनका जाना अच्छा हुआ क्यूँकि बीमारी ने उनको पूरी तरह से तोड़ दिया था और महज़ आत्मा के शरीर में कुछ भी नहीं बचा था । पूरे परिवार और गाँव ने मिल कर उनका अंतिम संस्कार किया और वापिस लौट आये ।
अभी शायद उनका शरीर पंचतत्व में विलीन भी नहीं हुआ था की एक और ख़बर आ गई और वो ख़बर थोड़ी और विचलित करने वाली थी । अम्मा की मौसी जो हर सुख दुःख में हर किसी के घर पहुँच जाती थी आज उनके घर पहुँचने वाला कोई नहीं था और उसकी तीन प्रमुख वजह . करोना , उनकी आर्थिक स्थिति और वीरान घर ।
उस घर में दो ज़िंदा लाशें और भी रहती है पहली उनकी कुछ ना सुन बोल पाने वाली बेहद ही कर्मठी बहु और एक सब कुछ सुन कर भी कुछ नहीं समझने वाला इकलौता बेटा । शायद मौसी के इसी भय ने उन्हें इतने कष्ट के बाद भी आत्मा को अपने शरीर से छोड़ने में इतना वक़्त लगाया ।
पहले पापा और फिर अम्मा ने हर संभव कोशिश कर के ज़रूरत का व्यवस्था अनुसार सब कुछ तो पहुँचा दिया लेकिन उस दरवाज़े पर लोग कोई नहीं पहुँचा पाया । मरने के बाद जो पहला भोज होता है उसमें सभी घरवाले और पटीदार बैठ कर खाने खाते है लेकिन मौसी के जाने के बाद वाला वो खाना भी किसी ने नहीं खाया .. पर क्यूँ ?
ये सब देख कर मौसी को जो पीड़ा हो रही होगी उसकी कल्पना भी करना मुमकिन नहीं लेकिन एक बात तो तय है आज के जामने में गाँव में पैसा और व्यवहार दोनो होना ज़रूरी है और जो सबसे जादे ज़रूरी है वो है एक संयुक्त परिवार ।
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