अपमानित चाचा

बदलते दौर और बदलते जज्बातों के बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं जो हर बदलाव के बाद भी आज वैसे ही हैं और शायद ना बदलने की जिद्द भी है चाहें वो उनकी अच्छी आदतें हो या फिर कोई बुरी।

इस बार का किस्सा ऐसे ही किसी बदनसीब बाप और चाचा का हैं। साल 2013 दुनिया जब 2G से 3G की तरफ़ भाग रही थी और खुल कर एक दूसरे को दूर बैठे देख पाना इतना ही आसान हो गया था जैसे मानों हम एक दूसरे के सामने बैठ कर आंखों में आंखे मिला कर देख रहे हों, लेकिन इस दौर में भी विकास एक बार भी ये नहीं सोच पाया की चलो देख लेते हैं की आखिर पिता जी अभी कहां घूम रहे हैं या फिर आखिर बार बार फोन क्यों काट रहे हैं । शायद वो अपनी पहली चार पहिया गाड़ी (2nd हैंड) को लेकर खुद में इतना खो चुका था की उसे कुछ और ना सूझ रहा था और ना कोई दिख रहा था क्योंकि आज रात में ड्राइव जिसका नाम कौशल था वो गाड़ी सीधे सीतापुर से लेकर मेरठ आ रहा था ।

रात के 8 बजे आखिरकार विकास का इंतजार खत्म हुआ और उसकी वो गाड़ी जो मानों किसी सपने जैसी थी उसके आखों के सामने थी लेकिन उसकी वो खुशी एक ही पल में हैरानी में बदल गई जब उसने देखा का कौशल नहीं स्वयं उसके पिता जी 500 किलोमीटर गाड़ी चला कर खुद ये तौफा उसे पहुंचाने आए हैं। आखें नम और कुछ पल बस वो उनके पसीने से भीगे कुर्ते को निहारता हुआ बस ये सोचने लगा की कितने मुश्किलों,उलझनों , नजर की दिक्कत और कमर के दर्द को नजरंदाज कर के आखिर वो उसके लिए ये तौफ़ा लेकर उसके पास आ गए ।

अपने आंसुओं को छिपाते हुए विशाल बोला "अच्छा पापा अब आप ऊपर चलिए नहा धोकर फटा फट खाना खा लिजिए , थोड़ा आराम कर लीजिए फिर बाकी बातें करते हैं।

मेरठ शहर में विशाल के पिता का ये पिछले 15 साल में पहला दौरा था और उसी शहर में विशाल के एक चचेरे भाई भी रहते थे जो कुछ वर्ष पहले तक सयुक्त रूप से एक ही छत के नीचे रहा करते थे और विशाल के पिता का उसके चचेरे भाई , बच्चे और स्वर्गीय पिता से अथाह स्नेह था और वो मानों बस कैसी भी उस रात का जल्दी से कटने का इंतजार कर रहे थे ।

विशाल ने कहा चलिए अब आप सो जाइए और कल सुबह नाश्ता के बाद मैं और प्रेरणा (मंगेतर) यहां की यूनिवर्सिटी और बाजार आप को घुमा कर ले आयेंगे , तभी झट से उसके पापा ने कहा नहीं नहीं मुझे गौरव ( विशाल का चचेरा भाई) से मिलने जाना है ,अपना मकान लिया है मेरा बड़ा लड़का और कैसे भला वहा ना जाऊं, बड़े भैया के जीते जी जो सपना नहीं सच हुआ चलो कम से कम मैं तो उस घर में चला जाऊ और देख आऊ वो महल जो बेहद ही त्याग और परिश्रम से उसने बनाया हैं , उनके आंखो में रिश्तों को लेकर जो मासूमियत थी वो देख मैं बस ये सोचने लगा की जहां हर कोई बंट रहा है या बंट चुका है वहा ये आदमी आज भी सबसे जुड़ कर और सबको जोड़ कर रखना चाहता है ।

खैर सुबह प्लान में थोड़ा बदलाव हुआ और विशाल के चहेरे भाई के पास एक और चचेरा भाई आया हुआ था और शायद दोनों ही भाई कहीं बाहर थे जिसकी वजह से उस दिन उनका जाना संभव नहीं हो पाया। इंतजार करते करते चार पांच दिन बीत गए और उत्सकुता निराशा में बदलने लगी और मन दुखी होने लगा क्योंकि जहां एक तरफ उसके पिता वहां जाने के लिए उत्सुक थे वही उस घर में लोग उनके मेरठ से जाने के इंतजार में थे। विशाल भी मन ही मन सिर्फ ये सोच रहा था की जिस घर वो अपना घर कह रहे हैं उस घर की ना महिला और ना बच्चे , उन्हें ना कोई जानता है , ना मानता है और ना पहचानता है फिर भी वहां क्यों वो जाने को इतने उत्सुक क्यों थे और आखिर अब इतने निराश क्यों हैं ।

जवाब बहुत साधारण था अपने भाई और उनके बच्चों के प्रति स्नेह और लगाव लेकिन विशाल शायद समझ ही नहीं पा रहा था क्योंकि उसके लिए भाई और उनके जैसी कोई बात जिंदगी में थी ही नहीं ।

आखिरकार विशाल के पिता उदास मन और बेहद ही चालाकी से अपने दर्द को आंखो में दबाते हुए मेरठ से सीतापुर (पैतृक निवास) के लिए निकल गए और फिर शुरू हुआ मदारी का खेल , फोन की घंटी बजी और फोन के दूसरी तरफ़ विशाल का चचेरा भाई था , अरे तुमने बताया नहीं हम तो चाचा जी को बुलाना चाहते थे और हमें लगा वो अभी रहेंगे , विशाल ने मुस्कुरा कर कहा नहीं नहीं उनको कोई जरूरी काम आ गया था तो अचानक से निकल गए।

पिता का ये अपमान और तिरस्कार उनके चरित्र को गंदा कहने और प्रदर्शित करने से भी ज्यादा घिनौना था क्योंकी इन सब के पीछे एक ऐसा चेहरा था जिसका नकाब बस उतरने ही वाला था की अचानक विकास की नींद खुल गई और सपना टूट गया ।

बगल में लेटे पिता को देखते देखते वो फिर से सो गया !

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